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Mere hum Nawas, Mere Hum Nawa - Shakeel Badayun

Mere hum Nawas, Mere Hum Nawa - Shakeel Badayun



 यह ग़ज़ल शकील बदायूनी की एक खूबसूरत और गहराई से भरी रचना है। यह इंसान के अंदर की भावनाओं, प्रेम, दर्द, और विश्वासघात की कहानी को बड़े ही संवेदनशील और मार्मिक अंदाज़ में बयां करती है। आइए इसे शेर-दर-शेर समझते हैं:


1. मेरे हम-नफ़स मेरे हम-नवा मुझे दोस्त बन के दग़ा न दे
मैं हूँ दर्द-ए-इश्क़ से जाँ-ब-लब मुझे ज़िंदगी की दुआ न दे

इस शेर में कवि अपने साथी या प्रेमी से कहता है कि अगर तुम मेरे हमसफ़र और साथी हो, तो मुझे धोखा मत दो। वह अपने इश्क़ के दर्द से इतना भर चुका है कि अब उसे "ज़िंदगी की दुआ" की ज़रूरत नहीं, क्योंकि वह अपने दर्द को ही अपनी वास्तविकता मान चुका है।


2. मेरे दाग़-ए-दिल से है रौशनी इसी रौशनी से है ज़िंदगी
मुझे डर है ऐ मिरे चारा-गर ये चराग़ तू ही बुझा न दे

यहां, "दाग़-ए-दिल" (दिल का घाव) कवि के लिए जीवन की रोशनी है। उसका दर्द ही उसकी प्रेरणा और अस्तित्व है। वह अपने "चारा-गर" (हीलर या डॉक्टर) से कहता है कि कहीं ऐसा न हो कि वह इस दर्द को मिटाने की कोशिश में उसकी जीवन की यह रोशनी ही बुझा दे।


3. मुझे छोड़ दे मिरे हाल पर तिरा क्या भरोसा है चारा-गर
ये तिरी नवाज़िश-ए-मुख़्तसर मिरा दर्द और बढ़ा न दे

इस शेर में कवि अपने चारा-गर से कहता है कि उसे अपने हाल पर छोड़ दे। वह इस बात को लेकर अनिश्चित है कि चारा-गर की मदद कहीं उसके दर्द को और न बढ़ा दे। उसकी "नवाज़िश-ए-मुख़्तसर" (छोटी-सी कृपा) से उसे और अधिक कष्ट होने का भय है।


4. मेरा अज़्म इतना बुलंद है कि पराए शो'लों का डर नहीं
मुझे ख़ौफ़ आतिश-ए-गुल से है ये कहीं चमन को जला न दे

कवि अपने इरादों को "अज़्म" के रूप में बहुत ऊंचा और मजबूत बताता है। उसे बाहरी खतरे ("पराए शो'ले") से डर नहीं है, लेकिन उसे डर है कि कहीं "आतिश-ए-गुल" (फूल की आग, जो भीतर से जलाए) से उसका चमन (जीवन) न जल जाए। यह आंतरिक संघर्ष और असुरक्षा की ओर संकेत करता है।


5. वो उठे हैं ले के ख़ुम-ओ-सुबू अरे ओ 'शकील' कहाँ है तू
तिरा जाम लेने को बज़्म में कोई और हाथ बढ़ा न दे

अंत में, शायर खुद से संवाद करता है। "ख़ुम-ओ-सुबू" (शराब और प्याला) प्रतीक हैं जश्न और उल्लास के। शायर खुद को टोकता है कि वह कहां है और सावधान करता है कि कहीं कोई और उसके हिस्से का "जाम" न ले ले। यह शेर जीवन के उत्सव में अपनी भागीदारी को लेकर जागरूकता और असुरक्षा को दर्शाता है।


भावनात्मक सार:
पूरी ग़ज़ल में दर्द, प्रेम, और आत्मनिरीक्षण का गहरा एहसास है। शायर ने अपने दर्द को न केवल स्वीकार किया है, बल्कि उसे अपनी प्रेरणा और जीवन का हिस्सा मान लिया है। यह रचना पाठक को इंसानी भावनाओं की जटिलता और गहराई का अहसास कराती है।

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